Monday 8 December 2014



वो काली रात की सुबह याद कर दिल आज भी दहल उठता है वो खौफनाक काली रात की मौतों के दर्द से हर दर्द भी तड़प जाता है!!
मुझे आज भी याद है वो २ दिसम्बर १९८४ की खामोश काली रात थी ना कोई चीख ना ही किसी की कोई पुकार थी!!
थी तो बस चारो तरफ सिर्फ खामोश लाशे-ही-लाश थी उन्ही लाशो के ढेर में अपनों की तलाश थी !!
किसी की माँ किसी का बेटा मौत की भेट चढ़ने वाली बड़ी खौफनाक वो काली रात थी अब तो सिर्फ दिल में अपनों की यादे है इंसाफ के नाम पर खोखले पुराने वादे है !! विजय गिरी (कवि एवं गोस्वामी समाज सेवक भोपाल )



ख्वाइशें दिलो में पनप जाते है

वक़्त की डोर जब हाथो से
छूट जाते है !!


दिल में एक कशक का अहसास 

उभर आता है 
जब अपना ही कोई हमारे इंतजार में
दम तोड़ बहुत दूर हमसे चला जाता है !!



आने वाला वक़्त भी रात के खवाबो की
तरह उड़ जाता है 
बीते हुए लम्हों के साये में इंसान अपनी
हथेली की लकीरो को बस 
तकता रह जाता है !!


वक़्त की डोर जब हाथो से
छूट जाता  है !!

******विजय गिरी*******

Tuesday 22 July 2014



  • देखो-देख़ो हमारे नेता जी के हाल
     सर पे टोपी , ऐ.सी है कार
     जनता उठा रही है नेता जी का भार !!

    सफ़ेद कुर्ते पे लगता कला बदनामी का दाग
     नेता जी कहते ,ये है विरोधियो की चाल
      सीबीआई वाले अपना सर खुजाते
     नेता जी अपनी फोटो खिचवाते
     देश की जनता अपनी किस्मत को गाते !!

    देखो-देखो ये नेता जी की हाल 
     बगल में हमेशा इनकी गन की दुकान 
     बाक़ी जनता है रद्दी सामान !!

    जनता की कमाई ये मिलकर खाए
      विकास के नाम पर जाँच करवाये
     ना भरे पेट तो जनता पर लाठिया गिरवाये !!

    सुनो-सुनो नेता जी के मीठे बोल
     मंत्री जी दे-दो मुझे भी एक कुर्सी
     वार्ना खोल दू मैं तुम्हारे सारे पोल !!

    नेता जी एक बार हमारे घर को आते

     हाँथ जोड़ प्यार से अपना सर झुकाते
     चुनाव जीत कुर्सी पाते
     फिर दूर से ही टाटा कर हमें
     अपना ठेंगा दिखाते !!


बदलने लगी  हैं फ़ितरत  लोगों की 
अहसासों  के रिश्ते भी अब 
पिघलने लगे लगे है !!

मुश्किलें हालत में  जो   लोग 
 थाम लेते थे हाथ हमारा !!

 अब  मेरे आशुओ पर भी 
 वहीं लोग मुस्कुराने लगे हैं 

विजय गिरी
    



माँ-बाप कि ममता के छाओं में
 बड़े हुए,बच्चे बीना किसी अभाव में !!

जाने कितनी राते कटी फाको में
 जाने कितने दिन रहे माँ-बाप
 बच्चो के खातिर उपवास में !!

आज उन्ही बूढी आँखों में
 आशु दे रहे बच्चे वो
 जिन आँखों से बहता था आशु
 बच्चो के उत्थान में !!
 
विजय गिरी


यहाँ हर शख्श मुर्दो की बस्ती में
 इन्सान ढूंढ़ता है !!
 जस्बादो की अर्थी के लिए
 किसी का प्यार ढूंढ़ता है !
देख हैवानियत का खेल
 इस दुनियाँ में बहु-बेटी की
 मर्यादा के लिए
 पीता  शैतान ढूंढ़ता है !
 दफ़न कर अपने जमीर
 अपने ईमान को
 हर शख्श दुसरो में
 ईमान ढूंढ़ता है !
यहाँ हर शख़्श मुर्दो की बस्ती में
 इन्सान ढूंढ़ता है !

विजय गिरी 

Friday 18 July 2014

 
काश तुम अपना दिल हार जाती
मैं ज़िन्दगी हार जाता !!

भूल कर ये सारा जहाँ
पल-भर के लिए तेरे
दिल में समां जाता !!

तुम थोड़ा साथ देती मेरा
मैं गुलाब की पंखुड़ी बन
तेरे कदमो में बिखर जाता !!

विजय गिरी