!! प्राक्रतिक संदेह !!
खो रही नमी ये भूमि
सूरज की तपीश अभी बाकी है !
सिमट रही ये नदिया ,अब तो वारीश
की भी कमी खलने वाली है !
संभल जाये हम मानव
ये वृछ ही जिंदगी हमारी है !
मत करो खिलवाड़ इस प्राक्रतिक से
जाने कैसी -कैसी विपदा आने वाली है !
आगाह कर रही ये प्राक्रतिक हमें
कही सुखा तो कही पनी-पानी है !
खो रही प्रक्रति अपना संतुलन
कही भूकंप तो कही तबाही है !
अब तो संभल जाये हम
इसी वृछ इसी नदियों से प्रक्रति
और प्रक्रति से ही जिंदगी हमारी है !
विजय गिरी