कसक
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इस दिल में एक कशक सी रहती है !
जीन पलकों ने संजोये थे सपने
वो पलके भी अब रोते-रोते
सोती है !
ना जाने लगी ये किसकी नज़र
जो खिले हुए बागो में भी
वो फूलो पे उदासी सी रहती है !
हरा-भरा है घर आँगन मेरा
हर कोने से किलकारी गूंजती है !
पर जाने क्यों हर-पल मुझे एक
कमी सी इस दिल में खलती है !
हर सुबह की किरणों में मुझे
एक उम्मीद की रौशनी आती है !
पर ढलती हुई शामो में ये सासे
थम सी जाती है !
रस्ता देख रही ये सुनी नज़रे
ये पलके भी छलक-छलक
सी जाती है !
बिता हुआ हर वो लम्हा यादो
में एक कसक सी दे जाती है !
विजय गिरी
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