ये तेरी छलकती आख़े मेरी चाहत की निशानी है !
कभी था मै तेरा आज तू मेरी दीवानी है !
अरे ये दिल तो मचलता था सिर्फ तेरी ही एक
झलक पाने को !
फिर क्यु तेरी आखो में आज पानी है !
माना की वो गुजरा हुआ वक्त तुम्हारा था !
और नशे में झूमता हर शख्स तुम्हारा था !
पर उस भीड़ में शामिल नहीं ये दीवाना था !
मेरी मोहब्त की दस्ता तो वो हवा सुनती है !
जो अक्सर इस खारे समुन्द्र को छू के जाती है !
अब ना कोई चाहत-ना मंजिल पाना है !
सज रहा है वो बिस्तर और आखरी सफ़र
पे जाना है !
ना समझा तुने तो कभी मेरी मोहब्त को
फिर क्यु तेरी आखों में आज पानी है !
अरे कभी था मै तेरा आज तू दीवानी है !
और ये तेरी छलकती आख़े तो मेरी चाहत
की निशानी है !
विजय गिरी
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