Monday 8 December 2014



वो काली रात की सुबह याद कर दिल आज भी दहल उठता है वो खौफनाक काली रात की मौतों के दर्द से हर दर्द भी तड़प जाता है!!
मुझे आज भी याद है वो २ दिसम्बर १९८४ की खामोश काली रात थी ना कोई चीख ना ही किसी की कोई पुकार थी!!
थी तो बस चारो तरफ सिर्फ खामोश लाशे-ही-लाश थी उन्ही लाशो के ढेर में अपनों की तलाश थी !!
किसी की माँ किसी का बेटा मौत की भेट चढ़ने वाली बड़ी खौफनाक वो काली रात थी अब तो सिर्फ दिल में अपनों की यादे है इंसाफ के नाम पर खोखले पुराने वादे है !! विजय गिरी (कवि एवं गोस्वामी समाज सेवक भोपाल )

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