Friday 23 December 2011

किसे गम है ?



जीने की चाहत नहीं हमें अब !
मरने का भला किसे गम है !

देखे है ज़माने के इतने रंग 
हमने !
कहा किसी के लिए हम है !
लोग खेलते रहे मेरे जस्बदो से
नहीं किसी के दिल में हम है !

प्यार-मोहबत तो है एक वेबफा 
कहानी !
कहा किसी की पलकेमेरे
लिए  नम है !

रखा था जहा उन्हें संभल के 
वही ज़ख़्म है !
ये पलके नम और ये दिल
मेरा तंग है !

खामोश से  इस ज़माने में 
नहीं अब इस दिल में कोई 
उमंग है !
जीने की चाहत नहीं हमें अब !
भला हमारे मरने का कहा 
किसी को कोई गम है !
विजय गिरी 


Thursday 22 December 2011

प्यार का नाम वेवफा रखा है



जाने कितने राज हमने इस दिल मे
छुपा रखा है !
किसी की वेवाफाई को इस दिल में 
बसा रखा है !

किसी ने प्यार को हीर तो किसी ने 
प्यार का नाम खुदा की निमायत 
रहमो-करम रखा है !

किसी की यादो में किसी ने अपने 
घर के चिराग को बुझा रखा है !
तो कोई प्यार के खातिर अपने 
घरो में खुशियों की शमा जला 
रखा है !

पर प्यार में मिले है इतने हमें 
ज़ख़्म की हमने तो मोहब्त का
नाम ही वेवफा रखा है !
विजय गिरी
 

Tuesday 13 December 2011

कभी ख़ुशी-कभी गम



ना पास आते है ! ना दूर जाते
है वो !
जब भी दूर जाना चाहा तो 
मेरा हाथ थाम लेते है वो !

इस कशमकश को क्या
समझू मै !
जब भी थामना चाहा उनका 
साथ !
अपना दामन छुड़ा लेते 
है वो !

जब भी चाहा उनको भूलना
खवाबो में  आ  के मुस्कुरा 
देते है वो !
जब भी चाहा हमने उनसे 
रूबरू होना तो अपनी नज़रे
चुरा लेते है वो !

करू उन का शुक्रिया जो चन्द
पलों की खुशिया दे जाते 
है वो !
या करू उन से शिकायत जो
मेरे हँसते हुए पलकों को रुला 
जाते है वो ?

विजय गिरी 


Thursday 1 December 2011

मेरे जस्बाद





प्यार-विशवाश से जो देखे कोई हमें 
तो में गले का हार हु !
वर्ना चमकती हुई एक तलवार 
हु मै !

प्यार की भाषा के लिए एक मीठी
सी बोली हु मै !
नफरत के लिए तो एक बन्दुक 
की गोली हु मै !

किसी का प्यार किसी का सम्मान 
तो किसी का इमान हु मै !
एस कलयुग में सीधा-सच्चा इंसान
 हु मै !

प्यार-विस्वास इमान पे तो कुर्बान हु मै
वर्ना महाकाल हु मै !

इंसान हु इंसानों से प्यार करता
हु !
नजरो में सराफत और दिल में
दुश्मनों  लिए भी प्यार रखता 
हु मै !

हर इंसानों के जस्बदो का सम्मान
रखता हु मै !

मत खेलना मेरे जस्बदो से कभी !
वर्ना प्यार के साथ मौत का सामान 
रखता हु मै !


विजय गिरी 


मेरे जस्बाद

प्यार-विशवाश से जो देखे कोई हमें 
तो मई गले का हार हु !
वर्ना चमकती हुई एक तलवार 
हु मै !

प्यार की भाषा के लिए एक मीठी
सी बोली हु मै !
नफरत के लिए तो एक बन्दुक 
की गोली हु मै !

किसी का प्यार किसी का सम्मान 
तो किसी का इमान हु मै !
एस कलयुग में सीधा-सच्चा इंसान
 हु मै !



प्यार-विस्वास इमान पे तो कुर्बान हु मै
वर्ना महाकाल हु मै !

इंसान हु इंसानों से प्यार करता
हु !
नजरो में सराफत और दिल में
दुस्मानो के लिए भी प्यार रखता 
हु मै !

हर इंसानों के जस्बदो का सम्मान
रखता हु मै !

मत खेलना मेरे जस्बदो से कभी !
वर्ना प्यार के साथ मौत का सामान 
रखता हु मै !
विजय गिरी 


Tuesday 29 November 2011

बेबसी की तड़प


तडपती रही वो मेरी जिंदगी 
मेरे ही नजरो के सामने और 
हम कुछ कर भी ना पाए !

क्या बताए हम तुम्हे दर्द-ए
दिल दोस्तों बड़ी मुद्दत से 
मिले वो हमें !

और हम थे इतने मजबूर
की दो लफ्ज प्यार के 
बोल भी ना पाए !

लोग आते रहे लोग जाते रहे 
कुछ तो हमारी बेबसी पे 
मुस्कुराते रहे !

तडपती रही वो जिंदगी हमारी
और हम दूर से ही तनहा 
बैठे अपने अस्क बहते रहे !

इस से बड़ी बेबसी भी क्या होगी
की हम अपनी तडपती हुई 
जिंदगी को दो पल का साथ 
दे - ना सके !

और रोना भी चाहा तो 
दिल खोल के रो ना सके !

विजय गिरी 



Monday 14 November 2011

आज की बोली बन्दुक की गोली है



आज लोगो की बोली मनो बन्दुक की 
गोली है !

छल्ली कर जाते ये सीना और खेली 
खून की होली है !

ओ प्यार के दुश्मन नफरत के पुजारी !
अजीब सी तेरी सीना-जोड़ी है !
प्यार-दोस्ती तेरा इमान खोखली 
तेरी ये बोली है !

हाथो की मेहन्दी को भी बदल देते 
लाल रंग में ये केसी लोगो की बोली 
है !
बात-बात पे खेली खून की होली है !


ओ गुरुर में जीने वालो देखो कितनी 
माओ की सुनी गोदी है !

दिल में भरा नफरत का बारूद 
तेरे लबो पे बन्दुक की गोली है !
खेली खून की होली है !
खेली खून की होली है 
विजय गिरी 





Thursday 10 November 2011

कदम-कदम बढ़ाये जा



कदम-कदम तू  बढ़ाये जा 
होसला  ऐ दिल तू बढ़ाये जा 
ना-रुक -ना झुक -ना पीछे 
तू मुड़ !

गहरी-गहरी सासों पे कदम
से कदम मिलाये जा !
तपती हुई धुप में लक्छ्य की 
लोअ जलाये जा !

ऊचे-ऊचे पर्वतो पे अपनी थाप
तू बनाये जा !
मंजिल है तेरे कदमो में बस
कदम-कदम तू बढ़ाये जा !

बढ़ते रह तू झटप-झटपट 
नजरो से काँटों को हटाये जा !

कदम-कदम तू बढ़ाये जा 
ना थक-ना हार रास्ते बनेगे
हजार !

कामयाबी होगी तेरे कदमो में 
बस होसला ए दिल बनाये जा
जित की लोअ जलाये जा !
कदम-कदम बढ़ाये जा !
कदम-कदम बढ़ाये जा !
   विजय गिरी
 

Saturday 5 November 2011

प्यार का इज़हार



एक नज़र जो देख लो तुम मुझको 
तो मेरी तक़दीर बदल जाएगी !

बैठा हु तेरे इन्तजार में ये 
तेरी जुल्फों से दिल पे सावन की 
घटा छा जाएगी !

मै मदहोश हु तेरे खयालो में 
जाने कब तेरे गुलाबी-सुर्ख ओठ 
मेरी प्यास बुझाएगी !

जाने कितने घायल हुए 
तेरी इन कातिल नजरो से 
मुझे कब ये अपनी पलकों 
में बसाएगी !

ये खिलता हुआ योवन सावन 
में भी पतझड़ की तरह यु ही 
गुजर जाएगी !

एक नज़र जो देख लो तुम 
मुझको तो मेरी तक़दीर ही 
बदल जाएगी !

विजय गिरी

Sunday 30 October 2011

मत कर इतना गुरुर



मत कर तू  खुद पे  इतना गुरुर 
की कही मेरी चाहत ही ना खत्म
ना हो जाए !

आए जब तू लौट के मेरे पास 
तो तेरा दिल ना कही टूट जाए !
मेरे प्यार को ना तू यु ठुकरा 
मुझसे ना तू यु नज़रे चुरा !
की मेरा एतबार टूट जाए !

लौट के आए जब तू इस ज़माने
में सब कुछ खो के तो मेरी कब्र
से भी ख़ाली हाथ ना तुम्हे लौटना 
पड़ जाए !

मत कर खुद पे तू इतना गुरुर 
की तुम्हे खुद के फैसले पे 
अफ़सोस हो जाए !

अरे एक नज़र तो देख लो मुझे 
भी जाने कब तुम्हारे इंतजार 
मेरी ये सांसे थम जाए !
विजय गिरी

Thursday 27 October 2011

एक दिवाली एसी भी



 दिवाली पे सब को मुस्कुराते देखा 
खुशियों में झूमते और गाते देखा !

किसी को साज-सज्जा  तो किसी को 
ताश के पत्तो पे  दौलत लुटाते देखा !

वही खुशियों की भीड़ में एक माशूम
से बच्चे को भूखे तनहा मेने आशु 
बहते देखा !

रौशनी और पकवान के इस पर्व पे 
रात के अँधेरे में किसी को पत्तलों 
से जुठा खाते देखा !

किसी को नए-नए कपड़ो में रुठते 
और किसी को इठलाते देखा तो 
किसी को आधे कपड़ो में ही अपनी 
आबरू बचाते देखा !

झील-मिल-झील-मिल दीपों की 
रौशनी में किसी को नाचते-गाते 
देखा तो किसी को सड़क के किनारे 
भूखा प्यासा आसू बहाते देखा !

मेने एसा भी दिवाली देखा !
मेने एसा भी दिवाली देखा !
विजय गिरी

Tuesday 18 October 2011

नया ज़माना


देखो ये कलयुग का नया ज़माना !
बनावटी जीवन में निराशा का 
अँधियारा  !
फैशन के इस दौर में संस्कारो को
भूल जाना !
भिखरते हुए  रिश्तो पे थिरकता ये 
नया ज़माना !
रेंग रहा वो संस्कार तड़प रहा है  वो 
प्यार !
ऊँगली पकड़ जिसने चलना 
हमें सिखाया !
चमकती सुबह-धधकती शाम में 
गुम हो गया वो प्यार भरा रिश्ता 
निभाना !
कितना खुश है नंगा नाचता ये
कलयुगी  नया ज़माना !

विजय गिरी

 

Sunday 16 October 2011

दुश्मन की उम्र कम न करना


ज़िन्दगी में छोड़ जाए कोई साथ तुम्हारा 
तो गम ना करना !
किसी को पाने की कोशिश हर-दम 
ना करना !

जिन्हें परवाह है तुम्हारे प्यार की 
वो तो साथ निभायेगे !
जो जीते है खुद सिर्फ अपने लिए 
भला वो क्या साथ निभायेगे !

लगे कभी दिल में कोई ठेस तो 
भी गम ना करना !
किसी वेबफा के लिए अपनी पलके 
नम ना करना !

दुश्मनों के लिए भी अपने दिल के 
दरवाज़े बंद ना करना !
पर किसी को पाने की खवाइश 
हर-दम ना करना !

जब तक रहे ये ज़िन्दगी 
तब तक निभाना तुम कुछ 
ऐसे की वो बेवफा भी बोले !
ए खुदा इस दुश्मन की उम्र 
कभी कम ना करना !

विजय गिरी

 

Friday 14 October 2011

मेरे भारत देश में



मेरे भारत देश में साधू-संतो के वेश में 
छुपे है कुछ असुर लम्बे-लम्बे केश में !

माया के फेर में जालसाजी के खेल में 
ओढे है लाल चोला ये 
खेल के खुनी खेल में !

दौलत की बेखुमारी शानो-सौकत की
महामारी में रोशन करते है अपने घरो 
को उस सीता से जो बैठी है 
सादी  साड़ी  में !

जस्बादो की अर्थी में मुर्दों की बस्ती में 
छोड़ के आये है ये ज़मीर !
हम इंसानों की इस बस्ती में !

गरीबी की थाली में अबला नारी की 
लाचारी में असुर बन के बैठे है 
गेरुए वेश धारी में !

राम-रहीम के वेश में 
जानवरों की रेस में साधू-संतो के देश में 
सवेत गणवेश में एक होड़ सी मची है असुरो 
की मेरे भारत देश में 
मेरे भारत देश में !

विजय गिरी








Saturday 8 October 2011

प्रेम की कश्ती


थोड़ा मेरा तुम साथ नीभा दो !
मेरे प्रेम की कश्ती को पार 
लगा दो !

बीच मझदार में है ये कश्ती मेरी 
दूर बड़ी है वो प्यार की बस्ती तेरी !
थोड़ा तुम हाथ बढ़ा दो !
मेरे प्रेम की कश्ती पार लगा दो !

इस कश्ती की तुमसे एक डोर 
बंधी है !
जाने केसे-केसे ये लहरें सही है !
इस कश्ती की तुमसे उम्मीद 
बड़ी है !
थोड़ा सा तुम प्यार जता दो 
मेरी कश्ती पार लगा दो !

दूर क्यों तू मुझसे खड़ी है !
तुम से तो सासों की ये डोर 
बंधी है !
दिल के सागर में हलचल सी 
मची है !

मुझको अपने पास बुला लो 
थोड़ा सा तुम साथ नीभा दो 
मेरी कश्ती पार करा दो !

विजय गिरी 

Sunday 2 October 2011

जंगल का इन्सान



बदलते समय का ये नया जमाना लगता है !
जंगल का इन्सान भी  इसी  शहर में आया !

 मारा-मारी छिना-झपटी लोमरी की चतुराई 
के सवभाव को हम इंसानों को भाया !
गंजल का इन्सान  शहर में आया !

रिश्ते-नातों को करे दाग-दार 
मासूम से दिल पे करे ये वार
नंगा नाचे गंजल का इन्सान !

सारे संस्कारो इंसानियत के रिश्ते को 
भुलाया गंजल का इन्सान सेहर में आया !

देह्सत का खोफ है चारो और छाया !
ना कोई मान ना कोई मर्यादा !
गंजल का इन्सान शहर में आया !

बदलते समय ने ये केसा कहर बरपाया 
लगता है !
गंजल का इन्सान भी शहर में आया !

     विजय गिरी

Saturday 1 October 2011

तन्हा



इतने मगरूर थे हम हम खुद में यारो की 
हर चेहरे में वफ़ा ही नज़र आया !
उठे जब हम नींद से तो खुद को बड़ा 
ही तन्हा पाया !

हम तो निहारते रहे अपने चिराग को 
और उसकी शमा को किसी और के 
आशियाने में पाया !

बड़ा ही मगरूर था हमें अपने चिराग पे 
जिसे बड़े अरमानो से अपने घर में जलाया !

हम तो सोए थे गहरी नींद में 
उस चिराग को सब कुछ सोप के 
उसी की शमा के साये में  !

उठे जब हम नींद से तो देखा 
उसी शमा ने हमारे आशियाने 
को जलाया !

बड़ा ही मगरूर था हमें यारो अपनी शमा 
पे जिसको हर हवा के झोको में भुझने 
से बचाया !

पर उठे जब हम गहरी नींद से तो 
हमने खुद को बड़ा ही तनहा पाया !

         विजय गिरी

Wednesday 28 September 2011

आराधना



ओ मैया शेरो वाली विनती सुन लो हमारी
हम बच्चे तेरे तू है मैया हमारी !

दो हमको भी तुम वरदान  कर दो हमसब 
बच्चो  का तुम कल्याण !
हमारे दिल में भी जोत जली है 
हर जगह मांगने वालो की भीड़ बड़ी है !
हम तो कब से है तेरे दवार पे
खली ये झोली पड़ी है !

 तुम तो करती ओ मैया जगत का कल्याण 
हम तो है तेरे बच्चे बड़े नादान  दो हमको 
भी थोडा प्यार !
हम बच्चो की आस बड़ी है !

मैया सुन लो मेरी भी पुकार  कर दो 
मैया तुम सब का कल्याण !
मेने भी तेरी जोत राखी है !
विजय गिरी

SAPNO KI RANI


aakhe teri chhoti-chhoti 
lagti hai tu nepalan !

ful gobhi si dikhnewali kehte hai sab
tujh ko rashan  !

chale jab tu marak-matak ke to
sab kehte hai aaya koi bhari wahan !


are dekh tumhe sab apne naino me
basa le lagti hai tu to kali kajal !

aawaz teri etni suriki ki sab kehte hai
fat gaya koi purana tayar !

creem-powder mal-mal ke heme malini
tu dikhti hai 
utre jab tera mekup to koi ujri si basti
lsi lagti hai !

kalu-bhalu sab tum pe marte kehte 
aaja tu oy meri enjen aayal !

dekh tri sundarta pe to ho 
gaya ye vijay ghalay !


vijay giri



Monday 26 September 2011

कशमे-वादे


क्या कशमे तेरे क्या मेरे वादे है  !
तोड़ जाते हो दिल मेरा जाने क्या 
तुम्हारे इरादे है !

उजरी हुई दुनिया मेरी सुने दिल में 
सिर्फ यादे है !
एक डोर से बंधा ये रिश्ता फिर क्यों 
फासले हमारे है !

समझ ना पाया इस जिंदगी को 
थोड़ी सी खुशिया और गम के तो 
लाखो बहाने है !

मिल के बिछड़ना-बिछड़ के मिलना 
जाने ये केसी किस्मत हमारे है !

हर मोड़ पे छोड़ देते तुम साथ मेरा 
जाने क्या तुम्हारे इरादे है  !
ये केसी कशमे तेरी ये केसे मेरे 
वादे है !

     विजय गिरी



 

Sunday 25 September 2011

ये क्या सीतम हुआ



उन्हें चाहने का वाह क्या दर्द मिला 
बची हुई ज़िन्दगी को गमो से भर दिया !

जीने की ख्वाइश तो हमने छोड़ ही दी थी !
मरने भी ना दिया उन्होंने असा ज़ख्म दिया !

बसा लिया उन्होंने तो अपने अरमानो का 
आशियाना !
हमें तो अपनों से भी बे-घर किया !
रखा था उम्हे जहा संभल के वही 
दर्द दिया !

ले लिया था वादा उन्होंने ता-उम्र  साथ 
निभाने का !
खुद ही बैठ गए किसी और कसती में 
जो पानी में थोडा सा कम्पन हुआ !

भर गए मेरी ज़िन्दगी को वो तो गमो से 
उन्हें चाहने का ये क्या सीतम हुआ !
            
               विजय गिरी

Friday 23 September 2011

इन्तजार



किसी की कमी तो वो जाने जीनकी
आँखे दिन-रात बरसती है !

जेसे बारिश की एक बूंद के लीए
ये प्यासी धरती तड़पती है  !

ये मोहब्त भी क्या चीज है जो सबको 
मील नहीं सकती !
अरे टूट भी जाय ये दील पर ये चाहत 
कभी रूठ नहीं सकती !

मेरी भी ये पलके तेरा रास्ता निहारती है !
कहा खो गए हो तुम ये तो दिन-रात 
बरसती है !

किसी की कमी तो वो जाने जो प्यार को
 जिंदगी समझते है !
जेसे रेगिस्तान की धुप में प्यासे एक बूंद 
पानी को तरसते है !

है मुझे भी तेरा इंतजार ये आँखे 
तरसती है !
जेसे बारिश की एक बूंद के लीए 
ये प्यासी धरती तरपती है !


विजय गिरी


Sunday 18 September 2011

ज़ख़्मी दील की सच्चाई




प्यार शब्द ही है एसा जो सीधे दील
को चिर देता है !

किसी को अपनी चाहत का एहसास
दिलाने में जाने कितना वक्त 
गुजर जाता है !

कोई थाम लेता है किसी के बहते है  हुए अस्को को 
तो किसी का सब कुछ अस्को में  ही  बह जाता है  !

जिन्हें समझते हो कोई अपनी मंजिल अपनी 
जिंदगी अक्सर वही दील तोड़ जाता है  !

जिसे मिल जाय अपनी मंजिल अपनी 
जिंदगी वो लव गुरु हो जाता है !

और जिसे समझ ना पाय कोई वो 
हम जैसा ज़ख़्मी दील कहलाता है  !

  विजय गिरी