Sunday 30 October 2011

मत कर इतना गुरुर



मत कर तू  खुद पे  इतना गुरुर 
की कही मेरी चाहत ही ना खत्म
ना हो जाए !

आए जब तू लौट के मेरे पास 
तो तेरा दिल ना कही टूट जाए !
मेरे प्यार को ना तू यु ठुकरा 
मुझसे ना तू यु नज़रे चुरा !
की मेरा एतबार टूट जाए !

लौट के आए जब तू इस ज़माने
में सब कुछ खो के तो मेरी कब्र
से भी ख़ाली हाथ ना तुम्हे लौटना 
पड़ जाए !

मत कर खुद पे तू इतना गुरुर 
की तुम्हे खुद के फैसले पे 
अफ़सोस हो जाए !

अरे एक नज़र तो देख लो मुझे 
भी जाने कब तुम्हारे इंतजार 
मेरी ये सांसे थम जाए !
विजय गिरी

Thursday 27 October 2011

एक दिवाली एसी भी



 दिवाली पे सब को मुस्कुराते देखा 
खुशियों में झूमते और गाते देखा !

किसी को साज-सज्जा  तो किसी को 
ताश के पत्तो पे  दौलत लुटाते देखा !

वही खुशियों की भीड़ में एक माशूम
से बच्चे को भूखे तनहा मेने आशु 
बहते देखा !

रौशनी और पकवान के इस पर्व पे 
रात के अँधेरे में किसी को पत्तलों 
से जुठा खाते देखा !

किसी को नए-नए कपड़ो में रुठते 
और किसी को इठलाते देखा तो 
किसी को आधे कपड़ो में ही अपनी 
आबरू बचाते देखा !

झील-मिल-झील-मिल दीपों की 
रौशनी में किसी को नाचते-गाते 
देखा तो किसी को सड़क के किनारे 
भूखा प्यासा आसू बहाते देखा !

मेने एसा भी दिवाली देखा !
मेने एसा भी दिवाली देखा !
विजय गिरी

Tuesday 18 October 2011

नया ज़माना


देखो ये कलयुग का नया ज़माना !
बनावटी जीवन में निराशा का 
अँधियारा  !
फैशन के इस दौर में संस्कारो को
भूल जाना !
भिखरते हुए  रिश्तो पे थिरकता ये 
नया ज़माना !
रेंग रहा वो संस्कार तड़प रहा है  वो 
प्यार !
ऊँगली पकड़ जिसने चलना 
हमें सिखाया !
चमकती सुबह-धधकती शाम में 
गुम हो गया वो प्यार भरा रिश्ता 
निभाना !
कितना खुश है नंगा नाचता ये
कलयुगी  नया ज़माना !

विजय गिरी

 

Sunday 16 October 2011

दुश्मन की उम्र कम न करना


ज़िन्दगी में छोड़ जाए कोई साथ तुम्हारा 
तो गम ना करना !
किसी को पाने की कोशिश हर-दम 
ना करना !

जिन्हें परवाह है तुम्हारे प्यार की 
वो तो साथ निभायेगे !
जो जीते है खुद सिर्फ अपने लिए 
भला वो क्या साथ निभायेगे !

लगे कभी दिल में कोई ठेस तो 
भी गम ना करना !
किसी वेबफा के लिए अपनी पलके 
नम ना करना !

दुश्मनों के लिए भी अपने दिल के 
दरवाज़े बंद ना करना !
पर किसी को पाने की खवाइश 
हर-दम ना करना !

जब तक रहे ये ज़िन्दगी 
तब तक निभाना तुम कुछ 
ऐसे की वो बेवफा भी बोले !
ए खुदा इस दुश्मन की उम्र 
कभी कम ना करना !

विजय गिरी

 

Friday 14 October 2011

मेरे भारत देश में



मेरे भारत देश में साधू-संतो के वेश में 
छुपे है कुछ असुर लम्बे-लम्बे केश में !

माया के फेर में जालसाजी के खेल में 
ओढे है लाल चोला ये 
खेल के खुनी खेल में !

दौलत की बेखुमारी शानो-सौकत की
महामारी में रोशन करते है अपने घरो 
को उस सीता से जो बैठी है 
सादी  साड़ी  में !

जस्बादो की अर्थी में मुर्दों की बस्ती में 
छोड़ के आये है ये ज़मीर !
हम इंसानों की इस बस्ती में !

गरीबी की थाली में अबला नारी की 
लाचारी में असुर बन के बैठे है 
गेरुए वेश धारी में !

राम-रहीम के वेश में 
जानवरों की रेस में साधू-संतो के देश में 
सवेत गणवेश में एक होड़ सी मची है असुरो 
की मेरे भारत देश में 
मेरे भारत देश में !

विजय गिरी








Saturday 8 October 2011

प्रेम की कश्ती


थोड़ा मेरा तुम साथ नीभा दो !
मेरे प्रेम की कश्ती को पार 
लगा दो !

बीच मझदार में है ये कश्ती मेरी 
दूर बड़ी है वो प्यार की बस्ती तेरी !
थोड़ा तुम हाथ बढ़ा दो !
मेरे प्रेम की कश्ती पार लगा दो !

इस कश्ती की तुमसे एक डोर 
बंधी है !
जाने केसे-केसे ये लहरें सही है !
इस कश्ती की तुमसे उम्मीद 
बड़ी है !
थोड़ा सा तुम प्यार जता दो 
मेरी कश्ती पार लगा दो !

दूर क्यों तू मुझसे खड़ी है !
तुम से तो सासों की ये डोर 
बंधी है !
दिल के सागर में हलचल सी 
मची है !

मुझको अपने पास बुला लो 
थोड़ा सा तुम साथ नीभा दो 
मेरी कश्ती पार करा दो !

विजय गिरी 

Sunday 2 October 2011

जंगल का इन्सान



बदलते समय का ये नया जमाना लगता है !
जंगल का इन्सान भी  इसी  शहर में आया !

 मारा-मारी छिना-झपटी लोमरी की चतुराई 
के सवभाव को हम इंसानों को भाया !
गंजल का इन्सान  शहर में आया !

रिश्ते-नातों को करे दाग-दार 
मासूम से दिल पे करे ये वार
नंगा नाचे गंजल का इन्सान !

सारे संस्कारो इंसानियत के रिश्ते को 
भुलाया गंजल का इन्सान सेहर में आया !

देह्सत का खोफ है चारो और छाया !
ना कोई मान ना कोई मर्यादा !
गंजल का इन्सान शहर में आया !

बदलते समय ने ये केसा कहर बरपाया 
लगता है !
गंजल का इन्सान भी शहर में आया !

     विजय गिरी

Saturday 1 October 2011

तन्हा



इतने मगरूर थे हम हम खुद में यारो की 
हर चेहरे में वफ़ा ही नज़र आया !
उठे जब हम नींद से तो खुद को बड़ा 
ही तन्हा पाया !

हम तो निहारते रहे अपने चिराग को 
और उसकी शमा को किसी और के 
आशियाने में पाया !

बड़ा ही मगरूर था हमें अपने चिराग पे 
जिसे बड़े अरमानो से अपने घर में जलाया !

हम तो सोए थे गहरी नींद में 
उस चिराग को सब कुछ सोप के 
उसी की शमा के साये में  !

उठे जब हम नींद से तो देखा 
उसी शमा ने हमारे आशियाने 
को जलाया !

बड़ा ही मगरूर था हमें यारो अपनी शमा 
पे जिसको हर हवा के झोको में भुझने 
से बचाया !

पर उठे जब हम गहरी नींद से तो 
हमने खुद को बड़ा ही तनहा पाया !

         विजय गिरी