Tuesday 18 October 2011

नया ज़माना


देखो ये कलयुग का नया ज़माना !
बनावटी जीवन में निराशा का 
अँधियारा  !
फैशन के इस दौर में संस्कारो को
भूल जाना !
भिखरते हुए  रिश्तो पे थिरकता ये 
नया ज़माना !
रेंग रहा वो संस्कार तड़प रहा है  वो 
प्यार !
ऊँगली पकड़ जिसने चलना 
हमें सिखाया !
चमकती सुबह-धधकती शाम में 
गुम हो गया वो प्यार भरा रिश्ता 
निभाना !
कितना खुश है नंगा नाचता ये
कलयुगी  नया ज़माना !

विजय गिरी

 

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