Saturday 8 October 2011

प्रेम की कश्ती


थोड़ा मेरा तुम साथ नीभा दो !
मेरे प्रेम की कश्ती को पार 
लगा दो !

बीच मझदार में है ये कश्ती मेरी 
दूर बड़ी है वो प्यार की बस्ती तेरी !
थोड़ा तुम हाथ बढ़ा दो !
मेरे प्रेम की कश्ती पार लगा दो !

इस कश्ती की तुमसे एक डोर 
बंधी है !
जाने केसे-केसे ये लहरें सही है !
इस कश्ती की तुमसे उम्मीद 
बड़ी है !
थोड़ा सा तुम प्यार जता दो 
मेरी कश्ती पार लगा दो !

दूर क्यों तू मुझसे खड़ी है !
तुम से तो सासों की ये डोर 
बंधी है !
दिल के सागर में हलचल सी 
मची है !

मुझको अपने पास बुला लो 
थोड़ा सा तुम साथ नीभा दो 
मेरी कश्ती पार करा दो !

विजय गिरी 

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