Saturday 3 September 2011

सुनी नजरे



 इन पलकों से अब कोई अश्क छलकता ही नहीं !
 जाने क्यों  इस दिल में अब कोई दर्द उठता ही नहीं !
  जाने क्या हो गया मुझे यारो इस दिल  में अब कोई
   ख्वाब पलता ही नहीं !
   बहुत देखे इस दिल ने ख्वाबो को पर रेत का कोई
   महल टिकता ही नहीं !
   जी रहा था मै ख्वाबो की दुनिया में पर बंद मुट्ठी 
     में भी रेत रुकता ही नहीं !
    देखा जब मेने दुनिया को उसी की नजरो से
    तो पता चला कोई दर्द को समझता ही नही  !
  बीच भवर में जो थाम ले कोई कस्ती ऐसा  शख्स 
      अब कोई मिलता ही नहीं !
   देखे है मेने उजरते हुए बागो को इसलिए 
     इस दिल में अब कोई ख्वाब पलता ही नहीं
    रोई है इतनी ये मेरी आखे की अब
   कोई आंसू छलकता ही नहीं  !
                  
             विजय गिरी


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