Sunday 4 September 2011

छलकती आख़े

  



ये तेरी छलकती आख़े मेरी चाहत की निशानी है !
  कभी था मै तेरा आज तू मेरी दीवानी है !
  अरे ये दिल तो मचलता था सिर्फ तेरी ही एक 
            झलक पाने को !

  फिर क्यु तेरी आखो में आज पानी है !
  माना की वो गुजरा हुआ वक्त तुम्हारा था !
  और नशे में झूमता हर शख्स तुम्हारा था !
  पर उस भीड़ में शामिल नहीं ये दीवाना था !
  मेरी मोहब्त की दस्ता तो वो हवा सुनती है !
  जो अक्सर इस खारे समुन्द्र को छू के जाती है !
  अब ना कोई चाहत-ना मंजिल पाना है !
  सज रहा है वो बिस्तर और आखरी सफ़र 
           पे जाना है !

  ना समझा तुने तो कभी मेरी मोहब्त को
  फिर क्यु तेरी आखों में आज पानी है !
 अरे कभी था मै तेरा आज तू दीवानी है !
 और ये तेरी छलकती आख़े तो मेरी चाहत
की निशानी है !

 विजय गिरी


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